31 जुलाई को मुंशी प्रेमचंद की जयंती है। जानें उनके जीवन, साहित्यिक योगदान, यथार्थवादी लेखन शैली और भारतीय समाज पर उनके अमिट प्रभाव के बारे में।
By: Ajay Tiwari
Jul 19, 202519 hours ago
31 जुलाई का दिन हिंदी साहित्य के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है, क्योंकि यह दिन हमें मुंशी प्रेमचंद की जयंती की याद दिलाता है। वे एक ऐसे साहित्यकार थे जिन्होंने अपनी कलम को केवल मनोरंजन का साधन नहीं बनाया, बल्कि उसे समाज के दर्पण और क्रांति की मशाल के रूप में इस्तेमाल किया। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था, लेकिन 'प्रेमचंद' के नाम से वे अमर हो गए। वे केवल एक लेखक नहीं, बल्कि समाज सुधारक, चिंतक और यथार्थवादी साहित्य के पुरोधा थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय ग्रामीण जीवन, किसानों की दुर्दशा, सामाजिक कुरीतियों और शोषण के खिलाफ आवाज उठाई।
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के लमही गाँव में हुआ था। उनका बचपन गरीबी और अभावों में बीता, जिसका गहरा प्रभाव उनकी लेखन शैली और विषयों पर पड़ा। उन्होंने अपनी शिक्षा बहुत संघर्षों से पूरी की और सरकारी नौकरी भी की, लेकिन उनका मन हमेशा लेखन में लगा रहा।
उनकी साहित्यिक यात्रा उर्दू से शुरू हुई, जहां वे 'नवाब राय' के नाम से लिखते थे। 1910 में उनकी कहानी संग्रह 'सोजे वतन' (राष्ट्र का विलाप) को ब्रिटिश सरकार ने राजद्रोहात्मक करार देकर जब्त कर लिया था। इसी घटना के बाद उन्होंने 'प्रेमचंद' नाम से हिंदी में लिखना शुरू किया और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने लगभग 300 से अधिक कहानियाँ, दर्जनभर उपन्यास और कई निबंध व लेख लिखे।
प्रेमचंद का साहित्य भारतीय ग्रामीण समाज का जीता-जागता चित्र प्रस्तुत करता है। उनकी रचनाओं में यथार्थवाद, आदर्शवाद और सामाजिक सरोकार का अद्भुत मेल मिलता है।
यथार्थवाद: उन्होंने अपने समय की सामाजिक सच्चाई को बिना किसी लाग-लपेट के प्रस्तुत किया। वे गरीबी, शोषण, जातिवाद, सामंती व्यवस्था और किसानों की दयनीय स्थिति को अपनी कहानियों और उपन्यासों का केंद्रीय विषय बनाते थे।
ग्रामीण जीवन का चित्रण: 'गोदान' और 'पूस की रात' जैसी रचनाएँ भारतीय गाँवों और वहाँ के किसानों के जीवन का इतना सटीक और संवेदनशील चित्रण करती हैं कि पाठक उनसे गहराई से जुड़ जाता है। उन्होंने ग्रामीण भाषा, मुहावरों और रीति-रिवाजों को अपनी रचनाओं में बखूबी पिरोया।
नारी चेतना: प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में नारी सशक्तिकरण और उनके अधिकारों की बात की। उन्होंने विधवा विवाह, बाल विवाह के विरोध और महिलाओं के प्रति सामाजिक अन्याय जैसे मुद्दों को उठाया। 'निर्मला' उपन्यास इसका एक बेहतरीन उदाहरण है।
सामाजिक सुधार: उन्होंने अपनी कलम को समाज सुधार का एक शक्तिशाली औजार बनाया। वे छुआछूत, सांप्रदायिकता, अंधविश्वास और शिक्षा के अभाव जैसी समस्याओं पर प्रहार करते थे।
भाषा शैली: उनकी भाषा सरल, सहज और आम बोलचाल की भाषा थी, जिसमें हिंदी, उर्दू और लोक भाषाओं का सुंदर मिश्रण होता था। यही कारण है कि उनका साहित्य जनसाधारण तक आसानी से पहुंच सका।
प्रेमचंद के साहित्य का कैनवास बहुत विशाल है। उनके कुछ प्रमुख उपन्यास और कहानियाँ निम्नलिखित हैं:
उपन्यास: गोदान, गबन, निर्मला, रंगभूमि, कर्मभूमि, सेवासदन, प्रेमाश्रम, कायाकल्प, वरदान, प्रतिज्ञा।
कहानी संग्रह: मानसरोवर (8 खंडों में), पूस की रात, ईदगाह, कफन, बड़े घर की बेटी, नमक का दरोगा, सद्गति, दो बैलों की कथा।
'गोदान' को उनका सर्वश्रेष्ठ उपन्यास माना जाता है, जो भारतीय किसान जीवन की त्रासदी का महाकाव्य है। 'ईदगाह' जैसी कहानियाँ बाल मनोविज्ञान और मानवीय संवेदनाओं की गहराई को दर्शाती हैं।
प्रेमचंद को 'कलम का सिपाही' कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने कभी भी अपनी कलम को अन्याय या शोषण के आगे झुकने नहीं दिया। उन्होंने ब्रिटिश राज के दौरान भी निर्भीकता से अपनी बात रखी और समाज की बुराइयों पर प्रहार किया। वे मानते थे कि साहित्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज को दिशा देना और उसमें सकारात्मक परिवर्तन लाना है।
आज भी, प्रेमचंद का साहित्य उतना ही प्रासंगिक है, जितना उनके समय में था। उनकी रचनाएँ हमें मानवीय मूल्यों, सामाजिक न्याय और समानता के लिए लड़ने की प्रेरणा देती हैं। वे हमें याद दिलाते हैं कि साहित्य केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि जीवन का यथार्थ और समाज की आत्मा का प्रतिबिंब है।
मुंशी प्रेमचंद की जयंती पर हम एक ऐसे महान साहित्यकार को याद करते हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से भारतीय समाज को एक नई दिशा दी। उनका साहित्य आज भी हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखता है और सामाजिक चेतना का पाठ पढ़ाता है। वे सचमुच 'जनता के साहित्यकार' थे, जिनकी आवाज आज भी लाखों दिलों में गूंज रही है।