पत्रकार धीरेंद्र सिंह राठौर के ब्लॉग पावर गैलरी में पढ़िए — कैसे एक नेता जी दो चुनाव हारने के बाद बिजली के मीटरों की चिंगारी से फिर राजनीति में कूद पड़े हैं। साथ ही जानिए कि कैसे सरकारी कर्मचारी ट्रांसफर के बाद भी अधर में लटके हैं, अफसरशाही ने जनप्रतिनिधियों को बेबस कर दिया है और सरपंच साहब ने पंचायत भवन को दुकान में बदल डाला है।
By: Yogesh Patel
Jul 31, 20257:56 PM
हाइलाइट्स
झटका लगा... नेता जी जगे!
लंबे समय से राजनीतिक कोमा में पड़े पड़ोसी जिले के नेता जी आखिरकार जाग उठे हैं वो भी 'बिजली के झटके' से। अपने स्टाइलिश पहनावे के लिए पहचाने जाने वाले नेता जी दो लगातार चुनाव हारने के बाद कहीं गायब हो गए थे। अब स्मार्ट मीटर की चिंगारी ने उन्हें फिर से जमीनी राजनीति में धकेल दिया है। जनता को मीटरों से लग रहे झटकों को हथियार बनाकर नेता जी फिर से सियासी मैदान में कूद पड़े हैं। नेता जी की अचानक सक्रियता देखकर सत्ता और विपक्ष दोनों को ही करंट लग गया है। अब देखना ये है कि ये वापसी 440 वोल्ट की साबित होती है या फिर फ्यूज उड़ाने वाली।
अधर में लटके
'न खुदा ही मिला न विसाल-ए -सनम, न इधर के हुए न उधर के हुए ' —ये शेर अब सिर्फ इश्क वालों पर नहीं, सरकारी कर्मचारियों पर भी लागू हो गया है। एक विभाग में तबादला पाकर स्टे पर लौटे दो कर्मचारी ऐसे अधर में लटके हैं, जैसे परीक्षा में पास होकर भी रिजल्ट अटका हो। साहब हैं कि नियमों की तलवार लहराकर ज्वॉइनिंग नहीं करा रहे हैं। कर्मचारी हैं कि हर दिन नई उम्मीद लेकर कार्यालय की परिक्रमा कर रहे हैं। अब न तो ये नई जगह जा पा रहे, ना ही पुरानी जगह काम शुरू कर पा रहे। सरकारी अहं की इस रस्साकशी में कर्मचारी त्रिशंकु बन घूम रहे हैं । अहं के टकराव में कर्मचारियों को न 'स्वर्ग मिल रहा न धरती'।
सिर पर बैठा तंत्र, प्रतिनिधि बेबस
शहर की जनता और उनके चुने हुए जनप्रतिनिधि, दोनों ही सरकारी सिस्टम से त्रस्त हैं। यहां अधिकारी ऐसे तने बैठे हैं जैसे कुर्सी उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो। प्रतिनिधियों का दर्द अब छिपा नहीं रहा, वो खुलेआम बोल रहे हैं, लेकिन सुनने वाला कोई नहीं। चाहे भ्रष्टाचार की बात हो या विकास की, अधिकारी हर मोर्चे पर अपनी धौंस जमाए बैठे हैं। लोकतंत्र यहां सिर के बल खड़ा है और कर्मचारी जनप्रतिनिधियों के सिर पर बैठे हैं। यहां अफसर राजा और नेता प्रजा बन चुके हैं। ऐसे में बड़ा से बड़ा जनप्रतिनिधि भी अपने आप को मजबूर और बेबस पा रहा है, वह सिर्फ निर्देश देने तक ही सीमित होकर रह गया है।
सरपंच साहब का मल्टीब्रांड स्टोर
गांवों के विकास का जिम्मा लिए सरपंच साहब खुद के विकास में जुटे हैं। पंचायत भवन से ज्यादा चमक उनकी दुकान पर है जहां मिठाई, दूध, सीमेंट, रेत और गिट्टी सब कुछ मिलता है। विकास की योजनाएं वहीं से कैल्क्युलेट होती हैं। अब सरपंच जी के लिए पंचायत सिर्फ एक नाम है, असली विकास तो उनके निजी खातों और गोदामों में हो रहा है। गांव वालों को सड़क-पानी मिले न मिले, साहब की दुकान पर हर चीज कमीशन सहित मौजूद है। लगता है पंचायती-राज नहीं, सरपंची-राज चल रहा है।