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हेल्थ वॉच

बृजेश पांडे का कॉलम: रीवा में मिशन डायरेक्टर के दौरे से स्वास्थ्य महकमा घबराया हुआ है। अस्पतालों की सच्चाई छिपाने के लिए बाहरी चमक-दमक पर ज़ोर दिया जा रहा है, जबकि मरीज बदहाल व्यवस्था और 108 एम्बुलेंस जैसी ‘बीमार सेवाओं’ के बीच जूझ रहे हैं।

By: Star News

Jul 09, 20252 hours ago

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हेल्थ वॉच

डायरेक्टर की आहट: 'घबराहट' में अस्पताल

रीवा संभाग में मिशन डायरेक्टर के आने की खबर से स्वास्थ्य महकमे में ऐसी खलबली मची है, मानो कोई आपदा आने वाली हो। संभागीय स्तर की बैठक से पहले जिला अस्पताल का निरीक्षण? अरे बाप रे! अधिकारियों के हाथ-पांव ऐसे फूले हैं कि बेचारे शायद अपने ही चेंबर की ठंडी हवा भी ठीक से नहीं ले पा रहे होंगे। सुना है, दो-तीन डॉक्टरों का 'स्वागत' ग्रुप भी तैयार है और धवारी से आदेश पर आदेश निकल रहे हैं कि "मेहमान नवाजी में कोई कमी न रहे।" चादरें बदली जा रही हैं, स्टाफ को ड्रेस कोड में आने की हिदायत दी जा रही है। अंदरखाने फुसफुसाहट चल रही है कि डायरेक्टर साहिबा को अस्पताल की बाहरी खूबसूरती और रंग-रोगन दिखाकर ही खुश करने की कोशिश की जाएगी। अंदर की सच्चाई तो वही जानें। लगता है, ये अस्पताल नहीं, जाने दो क्या कहें... जहाँ "अतिथि देवो भव" का पालन डायरेक्टर के लिए होता है, मरीजों के लिए नहीं।

'मीटिंग-मीटिंग' और फिर 'जीरो' नतीजा

स्वास्थ्य विभाग में इस समय 'समीक्षाओं' का दौर चल रहा है। अगर कोई लापरवाही हुई, तो बस एक और समीक्षा। राज्य और संभाग स्तर के अधिकारी आते हैं, डब्ल्यूएचओ की टीमें घूमती हैं, टीकाकरण से वंचित गर्भवती महिलाएं और बच्चे मिलते हैं, और फिर क्या? सिर्फ समीक्षा। रीवा के आला अधिकारियों ने तो पांच घंटे की मैराथन बैठक भी कर ली, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। सिर्फ 'सुधार के निर्देश' देकर कहानी खत्म और हाँ, आठ विकासखंडों के खंड चिकित्सा अधिकारी अनुपस्थित रहे, लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं होगी, क्योंकि "वो भी अपने विकासखंड के अधिकारी ही हैं," और "साहब का आदेश नहीं मानते!" वाह रे सिस्टम! लगता है, समीक्षा का मतलब अब सिर्फ  'दिखावा' और 'समय बर्बाद करना' रह गया है।

साहब हमारे 'एक्टिव' हैं... सिर्फ नोटिस देने में!

एक बात तो माननी पड़ेगी, धवारी स्थित कार्यालय में बैठे हमारे जिले के आला अधिकारी 'एक्टिव' बहुत हैं! जरा सी भी सोशल मीडिया पर हलचल हुई नहीं कि तुरंत 'संज्ञान' लेकर 'कार्रवाई' होती है। और हाँ, कार्रवाई में केवल 'नोटिस' जारी होती है, उसके बाद कुछ नहीं! सुना है, साहब ने एक महीने में न जाने कितनी नोटिसें जारी की होंगी लेकिन शायद ही किसी एक-दो का जवाब आया होगा। लगता है, नोटिस जारी करना ही इनकी 'एक्टिवनेस' का पैमाना है। समस्या का समाधान हो या न हो, एक नोटिस तो जरूर जाएगी!

चेंबर से बाहर नहीं आते साहब

जिला अस्पताल में मरीजों के साथ हमेशा से 'दोयम दर्जे' का व्यवहार होता आया है, और यह प्रथा भला अब क्यों बदलेगी? हमारे आला अधिकारियों ने तो नई बिल्डिंग में अपना डेरा डाल लिया है, जहाँ फुल एसी, वेल फर्निश्ड चेंबर हैं और बाहर से मंगाई गई 'बड़ी महंगी' कुर्सी भी! इधर, बेचारे मरीज पुरानी इमारतों में तड़पने को मजबूर हैं, ओपीडी में बैठने के लिए कुर्सी तक नहीं। बाहर से भवनों का 'कायाकल्प' हो रहा है, लेकिन अंदर मरीजों को 'अनट्रेंड स्टाफ' से इलाज मिल रहा है, 'मवाली' मरीज का गला काट कर चले जाते हैं, और सुरक्षा के नाम पर 'ठेके के गार्ड' अस्पताल परिसर में ढूंढे नहीं मिलते। कूलर तो लगा दिए गए हैं, लेकिन हवा अभी भी सीलिंग फैन ही दे रहा है। लगता है, अब अस्पताल प्रबंधन को यह आदेश भी जारी कर देना चाहिए कि "मरीज स्ट्रेचर और व्हीलचेयर घर से ही लेकर आएं।"

खुद बीमार, क्या ढोएंगी मरीज?

मरीज को नया जीवन देने वाली 'जीवनदायिनी' 108 एम्बुलेंस की हालत ऐसी है कि उनका कोई 'माई-बाप' ही नहीं है। मरीज को लाते-लाते कहाँ रुक जाए, कोई भरोसा नहीं। कई बार तो परिजनों को धक्का लगाने तक मजबूर होना पड़ता है। कुल मिलाकर, ये वाहन खुद ही बीमार हैं, किसी मरीज को क्या ढोएंगी? और इनकी निगरानी के लिए नियुक्त 'समन्वयक अधिकारी' का न तो कोई दफ्तर है और न ही कहीं बैठने का ठिकाना। कहने को तो जिले में 60 वाहन हैं, लेकिन मौके पर एक भी मरीज को उपलब्ध नहीं हो पाता। लगता है, ये 108 एम्बुलेंस नहीं, बल्कि 'खटारा एक्सप्रेस' हैं, जो बस सरकारी कागजों पर चलती हैं।

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