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पत्रकार रमाशंकर मिश्रा के ब्लॉग में विंध्य की राजनीति, नौकरशाही की चालबाजियाँ और प्रशासनिक अनियमितताओं पर तीखी टिप्पणी। जानिए कैसे ‘भइयाजी’ विरोधियों को पछाड़ते हुए सत्ता की ऊंचाइयों पर पहुंचे।

By: Star News

Jul 12, 20251:58 PM

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देवी मां की कृपा या विधि की विडम्बना

एक दौर था जब विंध्य के ‘विकास पुरुष’ को घेरने के लिए विंध्य के अलावा प्रदेश के कुछ बड़े नेताओं के घर मीटिंग हुआ करती थी। आज स्थिति यह है कि जितने भी विरोधी थे वह चारों खाने चित्त हो गए हैं। इसे ‘विधि की विडम्बना’ कही जाए या ‘देवी मां की कृपा’, आज वही विरोधी जो कल एकजुट होकर ‘भइयाजी’ की कमियां गिनाते थे, आज वही उनके नाम का कसीदा पढ़ना शुरू कर दिए हैं। एक ऐसा भी दौर था जब भइयाजी के चारों तरफ विरोधियों की एक बड़ी फौज थी, विंध्य के कई माननीय एक-दूसरे का हाथ पकड़ सत्ता से संगठन तक विरोध किये। कुछ वर्षों तक वह सफल भी रहे परंतु एक दौर आया जब भइयाजी को सत्ता के एक सिंहासन पर बैठा दिया गया, विरोधियों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। भइयाजी भी ‘काली मां’ के बड़े भक्त वह भी कहां रुकने वाले थे। अगला चुनाव आया और सबको धकेलते हुए वह सत्ता के एक बड़े पद पर आसीन हो गए। पद मिलते ही भइयाजी की नजदीकी पाने विरोधी घुसने लगे परंतु वह भी राजनीति के बड़े खिलाड़ी थे। इनकी चालबाजी से वो वाकिफ अपने रास्ते बिना रुके चलते रहे और विरोधियों को परास्त करते बड़े नेताओं के विश्वासपात्र बन गए। 

साहब निकले मझे खिलाड़ी

श्यामशाह चिकित्सा महाविद्यालय को अब स्थाई साहब मिल गए हैं। कुर्सी संभालते ही एक बड़ी जिम्मेदारी मिली जो करोड़ों की लागत से बनने वाली कैंसर अस्पताल है, अब साहब की तो बल्ले-बल्ले। प्रभार की बैसाखी से भले ही कॉलेज को छुटकारा मिला हो परंतु साहब को न तो अस्पताल में मरीजों की देखरेख से मतलब है और न ही व्यवस्था से। उनको खुद को सजाने संवारने में फुर्सत नहीं है। हादसे भी होते हैं एक अवसर ऐसा भी आया जब दवा खरीदी में साहब बुरी तरह से फंस गए। मामला कॉलेज के बाहर आया, भद पिटने लगी तब साहब ने इसका ठीकरा कहीं और फोड़ना चाहा। आनन-फानन में रातोंरात फाइल तैयार की गई और साहब को डूबने से बचा लिया, बचते भी क्यों न वह एक मझे खिलाड़ी की तरह पांसा फेंकने में माहिर जो निकले। हालांकि अब वह फूंक-फूंककर कदम रखने लगे हैं। 

अब इन्हें सपने में दिखने लगी हवालात

विकास के सिस्टम में दीमक की तरह बैठे एक विभाग के ‘बड़के साहब’ को अब सपने में हवालात दिखने लगी है। वह इसलिए कि तीन वर्ष पूर्व करोड़ों रुपए की लागत से एक टेंडर हुआ। जिसमें अस्पताल के रेनोवेशन का काम किया जाना था। ठेकेदार भी बनाए गए जो अधिकारी के बड़े नजदीकी थे। निर्माण कार्य में लगने वाला पैसा भी जेब में चला जाए और किसी को कानोंकान खबर न हो इसलिए जिले के बाहर की निर्माण एजेंसी चुनी गई। बगैर कार्य के करोड़ों रुपए डकार लिए गए, ऐसे ठेकेदार एवं अधिकारी और भी थे जिन्हें संबंधित कार्य कराने की ललक थी। जब भुगतान हो गया और काम भी नहीं हुआ तो शिकायत हुई। शिकायत आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो तक पहुंची, एफआईआर तक दर्ज हो गया। विवेचना शुरू हुई तब साहब को ऐसा लगा मानों वह बुरी तरह फंस गए हैं। ईओडब्ल्यू को जो बयान दिया गया वह गोल मोल था। ऐसे में आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो ने पूरा प्रतिवेदन ही मांग लिया। ‘बड़के साहब’ के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। न्यायालय की चौकठ भी चढ़ने लगे, अब उन्हें सपने में हवालात के दरवाजे दिखाई देने लगे हैं। 

रस्सी जल गई, नहीं गई ऐंठन

जिला संगठन में बड़ा पद मिलते ही ‘नेताजी’ की बांछें खिल उठी। कार्यालय मानों उनका अपना घर हो गया। अपने मन से संगठन के पदाधिकारी ‘नेताजी’ ने ही मनोनीत किए, एक लम्बी पारी भी खेली। जिले में प्रभारी मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक के कार्यक्रम में ‘नेताजी’ पहले पायदान में बैठते। बड़े अधिकारी से लेकर छोटे अधिकारी भी उनकी बड़ी आवभगत करते। अब वह अपने आपको जिले के बड़े नेताओं में गिनने लगे। सांसद, विधायक भी अब उनके नीचे हो गए। मुख्यमंत्री, मंत्री का दौरा कहां कराना है यह खुद नेताजी तय करते हैं। लम्बी पारी खेलने के बाद जब संगठन के दोबारा चुनाव की बारी आई और उन्हें रिपीट नहीं किया गया तब उन्होंने कार्यालय तक आना बंद कर दिया। अब वह प्रदेश के बड़े नेताओं द्वारा किए जाने वाले दौरों के वक्त जरूर देखे जाते हैं। यह अलग बात है कि जिस कुर्सी पर वह विराजमान होते थे वहां अब कोई दूसरे नेताजी बैठने लगे हैं। हालांकि अभी भी अपने रुतबे को वह बरकरार रखना चाहते हैं।

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